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यूँ ही नहीं अनसुनी कर सकोगे,
आज जो क्रांति के नारे लगे हैं।
हम अब भी डटे हैं, और अब अपने परचम,
लहराते नहीं, लहलहाने लगे हैं।
सुन ले समंदर! संभल जा ज़रा तू!
तेरे थपेड़े अब थके-पुराने लगे हैं।
हमको तो पता थे हमामों के नज़ारे,अब नंगे सबको नज़र आने लगे हैं।
जिनको चुना था हमने अपना नौकर,
वो 'राजा' सी हुकूमत चलने लगे हैं।
आओ दिखा दें जन की शक्ति,
ऊंचे शिखर अब डगमगाने लगे हैं।
देख कर आज - जिसको कहते हैं भारत,
अंग्रेजों के ज़माने सुहाने लगे हैं।
समंदर! तुझे भी पीना है खारा पानी,
बोल! क्या लब थर-थराने लगे हैं!
आग तो कब से लगी थी इस सीने में,
उस आग को अब हम फैलाने लगे हैं!
- २४ जनवरी २०१२